नमस्तुभ्यं भगवते विशुद्धज्ञानमूर्तये आत्मारामाय रामाय सीतारामाय वेधसे ।।


नमस्ते राम राजेन्द्र नमः सीतामनोरम नमस्ते चंडकोदण्ड नमस्ते भक्तवत्सल ।।


दीन मलीन हीन जग मोते । रामचंद्र बल जीवत तेते ।।

Wednesday, August 23, 2023

अब्बै तब्बै लाग है -एक अध्यात्मिक रहस्य

 बचपन में मैंने एक बार अपने गाँव में लोगों को बात करते हुए सुना कि अब्बै तब्बै लाग है  तब उस समय समझ में नहीं आया कि यह है क्या ? किसी को भूत लगते सुना था । किसी को चुड़ैल लगते सुना था । लेकिन अब्बै तब्बै लाग है यह पहली बार सुना था । वास्तव में इसका मतलब था कि एक व्यक्ति जो बीमार था वह अब या तब अर्थात कभी भी मर सकता था । इसी को गाँव की भाषा में अब्बै तब्बै लाग है कहा जा रहा था । 

 

आज कल प्रेजेंन्टेसन का जमाना है । तरह-तरह के भाषण, मोटीवेशनल भाषण-व्याख्यान, अथवा अध्यात्मिक प्रवचन आदि में प्रेजेंन्टेसन का बहुत महत्व है ।  इससे लोग बहुत प्रभावित होते हैं । 

 

  आजकल कुछ लोग भगवद प्राप्ति और भगवद दर्शन होने आदि को इस तरह प्रेजेंन्ट करते हैं कि सुनने वालों को लगता है कि इनको तो हो चुका है और बस हम लोगों की बारी है । और बारी क्या है ऐसा लगने लगता है कि अब्बै तब्बै लाग है । भगवान अब मिले कि तब । दर्शन अब हुआ कि तब ।

 

  ऐसे ही एक संत को देख-सुनकर कुछ महिलाओं को लगने लगा कि अब्बै तब्बै लाग है । एक व्यक्ति ने उनमें से एक को पूछा कि आप तो कह रही थीं कि इन महाराज जी की कथा यदि लगातार नौ-दस दिन सुन लूँ तो भगवान के दर्शन हो जायेंगे । लेकिन तब से आप ने बहुत सुना । दो-दो महीने-डेढ़ महीने लगातार सुना लेकिन दर्शन हुए क्या ? तब वह बोली कि अब तक हो जाते लेकिन तुम्हारी वजह से नहीं हो रहे हैं क्योंकि तुम बीच-बीच में प्रश्न खड़ा कर देते हो । प्रेजेंन्टेसन से माइंड वाश हो जाने पर ऐसा ही होता है 


 उसकी बात से यही लग रहा था कि भले अब तक दर्शन नहीं हुए लेकिन अब्बै तब्बै लाग है - 

रामदास इनसे जुड़े दूर कहाँ कल्यान । 

आज नहीं तो कल सही भेजिहैं राम विमान 

 

।। जय श्रीराम ।।

Monday, August 7, 2023

साधुता और वेश: वेश गौण और साधुता प्रधान होती है

 

जिसका वेश साधु का हो वह साधु हो भी यह जरूरी नहीं होता है । इसी तरह यदि किसी का वेश साधु का नहीं है तो वह असाधु हो यह भी जरूरी नहीं है । यदि वेश और साधुता दोनों एक साथ हो तो फिर कहना ही क्या है । इससे उत्तम और क्या हो सकता है । 

 

 साधू होने के लिए वेश प्रधान नहीं है साधुता प्रधान है । जिसके आचरण में साधुता है वह साधु है चाहे उसका वेश कुछ भी हो । इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय प्रमाण दे रहे हैं ।

 

  त्रिवेणीजी श्रीरामचरितमानस जी के अयोध्याकाण्ड में भरत जी से कहते हैं कि के हे तात भरत तुम सब बिधि साधू हो । अर्थात तुम पूर्णतया-सब प्रकार से साधू हो- ‘तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू । राम चरन अनुराग अगाधू’ ।। लेकिन यहाँ यह बड़ी ध्यान देने वाली बात है कि जब भरत जी भरद्वाजजी से मिले थे, संगम-त्रिवेणी जी गए थे तो उस समय उनका वेश साधु का नहीं था-‘वेष न सो सखि सीय न संगा । आगे अनी चली चतुरंगा’ ।। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधू होने के लिए वेश गौण और साधुता ही प्रधान है ।

 

 गोस्वामी जी ने कहा भी है कि जामवंतजी और हनुमानजी को साधु का सम्मान मिला है जबकि उनका वेश साधु का नहीं था । क्योंकि जामवंत जी और हनुमानजी में साधुता थी- कियेहु कुवेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ।।

 

वहीं दूसरी ओर जो ठग हैं लेकिन वेश अच्छा बना लेते हैं तो कुछ दिन उनकी भी पूजा होती है । यह वेश के प्रभाव से होता है- ‘लखि सुवेष जग बंचक जेऊ । वेश प्रताप पूजिअहिं तेऊ’ ।। गोस्वामी जी कहते हैं कि भले और बुरे का भेद जरूर खुलता है । जैसे रावण, कालनेमि और राहु का भेद भी अंततः खुल गया था । रावण और कालनेमि ने साधु का वेश तो बना लिया लेकिन उनमें साधुता नहीं थी । रावण और कालनेमि का अंततः भेद खुल गया- ‘उघरहिं अंत न होइ निवाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू’ ।।

 

इतना ही नहीं पहले हनुमानजी ने कालनेमि का सम्मान किया क्योंकि उसने वेश साधु का बना रखा था । लेकिन जब हनुमान जी को पता चला कि इसका वेश तो साधु का है लेकिन यह साधु नहीं है तब क्या किया- ‘सिर लंगूर लपेटि पिछारा’

 

  इस प्रकार साधू होने के लिए वेश गौण और साधुता प्रधान है । और यदि भेद खुल जाय तो फिर किनारा कर लेना चाहिए । क्योंकि हनुमान जी ने भी यही किया था । वे समर्थ थे तो उन्होंने कालनेमि को दण्ड भी दिया । लेकिन हम लोगों को किनारा कर लेना चाहिए । इतनी शिक्षा तो लेनी ही चाहिए ।

 

 

।। जय हनुमान जी की ।।

 

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