जिसका वेश साधु का हो वह साधु हो भी यह जरूरी नहीं होता है ।
इसी तरह यदि किसी का वेश साधु का नहीं है तो वह असाधु हो यह भी जरूरी नहीं है ।
साधू होने के लिए वेश
प्रधान नहीं है साधुता प्रधान है । जिसके आचरण में साधुता है वह साधु है चाहे उसका
वेश कुछ भी हो । इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय प्रमाण दे रहे हैं ।
त्रिवेणीजी
श्रीरामचरितमानस जी के अयोध्याकाण्ड में भरत जी से कहते हैं कि के हे तात भरत तुम
सब बिधि साधू हो । अर्थात तुम पूर्णतया-सब प्रकार से साधू हो- ‘तात भरत तुम्ह
सब बिधि साधू । राम चरन अनुराग अगाधू’ ।। लेकिन यहाँ यह बड़ी ध्यान देने वाली
बात है कि जब भरत जी भरद्वाजजी से मिले थे, संगम-त्रिवेणी जी गए थे तो उस समय उनका
वेश साधु का नहीं था-‘वेष न सो सखि सीय न संगा । आगे अनी चली चतुरंगा’ ।।
इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधू होने के लिए वेश गौण और साधुता ही प्रधान है ।
गोस्वामी जी ने कहा भी
है कि जामवंतजी और हनुमानजी को साधु का सम्मान मिला है जबकि उनका वेश साधु का नहीं
था । क्योंकि जामवंत जी और हनुमानजी में साधुता थी- कियेहु कुवेष साधु सनमानू ।
जिमि जग जामवंत हनुमानू ।।
वहीं दूसरी ओर जो ठग हैं लेकिन वेश अच्छा बना लेते हैं तो कुछ
दिन उनकी भी पूजा होती है । यह वेश के प्रभाव से होता है- ‘लखि सुवेष जग बंचक
जेऊ । वेश प्रताप पूजिअहिं तेऊ’ ।। गोस्वामी जी कहते हैं कि भले और बुरे का
भेद जरूर खुलता है । जैसे रावण, कालनेमि और राहु का भेद भी अंततः खुल गया था ।
रावण और कालनेमि ने साधु का वेश तो बना लिया लेकिन उनमें साधुता नहीं थी । रावण और
कालनेमि का अंततः भेद खुल गया- ‘उघरहिं अंत न होइ निवाहू । कालनेमि जिमि रावन
राहू’ ।।
इतना ही नहीं पहले हनुमानजी ने कालनेमि का सम्मान किया क्योंकि
उसने वेश साधु का बना रखा था । लेकिन जब हनुमान जी को पता चला कि इसका वेश तो साधु
का है लेकिन यह साधु नहीं है तब क्या किया- ‘सिर लंगूर लपेटि पिछारा’ ।
इस प्रकार साधू होने
के लिए वेश गौण और साधुता प्रधान है । और यदि भेद खुल जाय तो फिर किनारा कर लेना
चाहिए । क्योंकि हनुमान जी ने भी यही किया था । वे समर्थ थे तो उन्होंने कालनेमि
को दण्ड भी दिया । लेकिन हम लोगों को किनारा कर लेना चाहिए । इतनी शिक्षा तो लेनी
ही चाहिए ।
।। जय हनुमान जी की ।।
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