नमस्तुभ्यं भगवते विशुद्धज्ञानमूर्तये आत्मारामाय रामाय सीतारामाय वेधसे ।।


नमस्ते राम राजेन्द्र नमः सीतामनोरम नमस्ते चंडकोदण्ड नमस्ते भक्तवत्सल ।।


दीन मलीन हीन जग मोते । रामचंद्र बल जीवत तेते ।।

Saturday, December 16, 2023

कथा-प्रवचन और कीर्तन में उपेक्षित पद और चौपाई

 

जहाँ एक ओर कथा-प्रवचन और कीर्तन के दौरान कुछ पद और चौपाई पर विशेष जोर दिया जाता है वहीं दूसरी ओर कुछ की बिल्कुल उपेक्षा कर दी जाती है । उदाहरण के लिए जिनका बहुतायत गायन होता है और जिनको कीर्तन में भी सम्मिलित किया जाता है उनमें से कुछ चौपाई और पद निम्नवत हैं - (१) ‘अब मोहिं भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता’ ।। (२) ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’ । (३) ‘जब द्रवहिं दीनदयाल राघव साधु संगति पाइए’ । 


  कई कथा वाचक और संत उपरोक्त चौपाई व पद पर बहुत जोर देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं जिससे सुनने वालों को समझ में आ जाए कि उन पर भगवान की कृपा हो चुकी है तभी ये हम लोगों को मिले हैं और कथा सुना रहे हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि कई भोले-भाले लोग कथा वाचक का संग करने लगते हैं अर्थात उनके साथ लग जाते है । अथवा साथ के लिए लालायित रहते हैं या रहने लगते हैं ।


   लेकिन कुछ पद और चौपाई ऐसी हैं जिनकी प्रायः उपेक्षा कर दी जाती है । इनकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता ।  इनमें से कुछ निम्नवत हैं- (१) ‘संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही । चितवहिं राम कृपा करि जेही’ ।। (२) ‘भव सरिता को नाव सुद्ध संतन के चरण’

 

 इस प्रकार कथा-प्रवचन और कीर्तन में लोग भले ही उपेक्षा कर दें लेकिन शुद्धता का बहुत महत्व है । कोई समझे अथवा न समझे, माने अथवा न माने लेकिन जिन चौपाईयों और पदों पर विशेष जोर दिया जाता है उनमे भी संत का मतलब विशुद्ध संत ही है । क्योंकि विशुद्ध संतों से ही लोक और परलोक  बन सकता है 

 

 

 । जय श्रीसीताराम 

 

Friday, December 1, 2023

पीछे-पीछे भगवान लगा दूँ

 

आजकल कई लोग कथा सत्संग में ऐसा बोलते हैं, बताते हैं कि लगता है कि इनकी सेवा करो, इनकी कथा सुनों, इनका संग करो तो ये सारे काम बना देंगे अथवा बन जाएगा ।

ये आसानी से भगवान की लीला में प्रवेश करा देंगे अथवा आसानी से लीला में प्रवेश हो जाएगा । ये आसानी से भगवद प्राप्ति करा देंगे अथवा आसानी से भगवद प्राप्ति हो जायेगी ।

 

 इतना ही नहीं रही भगवान के दर्शन की बात तो यह बहुत मामूली बात है । क्योंकि ये भगवान को पीछे-पीछे लगा देंगे अथवा भगवान स्वयं पीछे-पीछे लग जायेंगे । बस करना क्या है-इनकी सेवा करो, इनकी कथा सुनों, इनका संग करो ।

 

तेरा मैं हर काम करा दूँ ।

लीला में प्रवेश करा दूँ ।।

पल में भगवद प्राप्ति करा दूँ ।

दर्शन की तो बात ही क्या है

पीछे-पीछे भगवान लगा दूँ ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

Friday, November 17, 2023

बिगरत मन सन्यास लेत

 

कलियुग में कलियुग की कुचाल के चलते सन्यास लेते ही मन बिगड़ने लगता है । शायद इसलिए ही कलियुग में सन्यास वर्जित है ऐसा भी कहा गया है । सन्यास ले लेना और निबाहना दो बातें होती हैं । लेने को तो कई लोग सन्यास ले लेते हैं लेकिन सही अर्थों में निबाहते कितने हैं यह महत्वपूर्ण है ।

 

जैसे आजकल अनेकानेक लोग किसी गुरू के चेले बन जाते हैं । दीक्षा ले लेते हैं । दीक्षा लेने के बाद निभाते कितने लोग हैं ।  यह बड़ी बात है ।

 

 सन्यास आश्रम चार आश्रमों में अंतिम है । यदि सन्यास आश्रम में भी मन बिगड़ता है, आशा-इच्छा साथ नहीं छोड़ती तो फिर इसका कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता । संन्यास के बाद तो फिर एक ही चाह और एक ही आश राम श्याम घन की ही होनी चाहिए । यही इसकी सार्थकता है । लेकिन इस कलिकाल की कुचाल ऐसी है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जैसे जल डालने से कच्चा घड़ा बिगड़ने लग जाता है ठीक वैसे ही कलियुग में सन्यास लेते ही मन बिगड़ने लग जाता है । शायद इसी के चलते कई लोग बिगड़ भी जाते हैं । और कुछ विरले ही संभल कर रह पाते हैं-


बिगरत मन सन्यास लेत, जल नावत आम घरो सो ।


                 -श्रीविनयपत्रिका-गोस्वामी तुलसीदास जी ।

 

।। जय श्रीराम ।। 

Sunday, October 1, 2023

आयो री सखी कोशलराज दुलारे

आयो री सखी कोशलराज दुलारे ।

सुंदर श्याम मनोहर मूरति, रहि नहिं जात निहारे ।।१।।

कोटि मनोज देखि छवि लाजै, लोचन जात न टारे ।

श्याम गौर दोउ बंधु सुहावन, मुनि जन लोचन तारे ।।२।।

यज्ञ कराये मुनि मन तोषे, असुरन को संघारे ।

धनु मख हेतु जनकपुर आए, पुर गुर मातु उधारे ।।३।।

पुर चहुँ ओर होत है चर्चा, जागे भाग हमारे ।

दीन संतोष नाथ छवि देखे, सकल अपनपो हारे ।।४।।

 

।। कोशलराज दुलारे श्रीराम-लक्ष्मण की जय ।।


Friday, September 22, 2023

बसौ मेरे नयनन में रघुवीर

 

बसौ मेरे नयनन में रघुवीर

रूप अनूप मदन लखि लाजै, सुंदर श्याम शरीर ।।१।।

अंग अंग सुभग मनोहर चितवन, सुंदर धनु कर तीर ।

बालोचित पट सोहत नीके, भूषण लसत तुणीर ।।२।।

मंद मंद मुस्कान सुशोभित, नाभी रुचिर गंभीर ।

भूपति मगन मुदित सब रानी, निरखत जन मन हीर ।।३।।

चारों भ्रात सखा संग सोहत, सकल सुभग वर वीर ।

अवध बीथिन बिच विचरत रघुवर, खेलत सरजू तीर ।।४।।

सुर नर मुनि निरखत सुख पावत, मुदित सकल मतिधीर ।

दीन संतोष ओर प्रभु देखो, धारो कर मम सीर ।।५।।


। जय रघुवीर 

Wednesday, August 23, 2023

अब्बै तब्बै लाग है -एक अध्यात्मिक रहस्य

 बचपन में मैंने एक बार अपने गाँव में लोगों को बात करते हुए सुना कि अब्बै तब्बै लाग है  तब उस समय समझ में नहीं आया कि यह है क्या ? किसी को भूत लगते सुना था । किसी को चुड़ैल लगते सुना था । लेकिन अब्बै तब्बै लाग है यह पहली बार सुना था । वास्तव में इसका मतलब था कि एक व्यक्ति जो बीमार था वह अब या तब अर्थात कभी भी मर सकता था । इसी को गाँव की भाषा में अब्बै तब्बै लाग है कहा जा रहा था । 

 

आज कल प्रेजेंन्टेसन का जमाना है । तरह-तरह के भाषण, मोटीवेशनल भाषण-व्याख्यान, अथवा अध्यात्मिक प्रवचन आदि में प्रेजेंन्टेसन का बहुत महत्व है ।  इससे लोग बहुत प्रभावित होते हैं । 

 

  आजकल कुछ लोग भगवद प्राप्ति और भगवद दर्शन होने आदि को इस तरह प्रेजेंन्ट करते हैं कि सुनने वालों को लगता है कि इनको तो हो चुका है और बस हम लोगों की बारी है । और बारी क्या है ऐसा लगने लगता है कि अब्बै तब्बै लाग है । भगवान अब मिले कि तब । दर्शन अब हुआ कि तब ।

 

  ऐसे ही एक संत को देख-सुनकर कुछ महिलाओं को लगने लगा कि अब्बै तब्बै लाग है । एक व्यक्ति ने उनमें से एक को पूछा कि आप तो कह रही थीं कि इन महाराज जी की कथा यदि लगातार नौ-दस दिन सुन लूँ तो भगवान के दर्शन हो जायेंगे । लेकिन तब से आप ने बहुत सुना । दो-दो महीने-डेढ़ महीने लगातार सुना लेकिन दर्शन हुए क्या ? तब वह बोली कि अब तक हो जाते लेकिन तुम्हारी वजह से नहीं हो रहे हैं क्योंकि तुम बीच-बीच में प्रश्न खड़ा कर देते हो । प्रेजेंन्टेसन से माइंड वाश हो जाने पर ऐसा ही होता है 


 उसकी बात से यही लग रहा था कि भले अब तक दर्शन नहीं हुए लेकिन अब्बै तब्बै लाग है - 

रामदास इनसे जुड़े दूर कहाँ कल्यान । 

आज नहीं तो कल सही भेजिहैं राम विमान 

 

।। जय श्रीराम ।।

Monday, August 7, 2023

साधुता और वेश: वेश गौण और साधुता प्रधान होती है

 

जिसका वेश साधु का हो वह साधु हो भी यह जरूरी नहीं होता है । इसी तरह यदि किसी का वेश साधु का नहीं है तो वह असाधु हो यह भी जरूरी नहीं है । यदि वेश और साधुता दोनों एक साथ हो तो फिर कहना ही क्या है । इससे उत्तम और क्या हो सकता है । 

 

 साधू होने के लिए वेश प्रधान नहीं है साधुता प्रधान है । जिसके आचरण में साधुता है वह साधु है चाहे उसका वेश कुछ भी हो । इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय प्रमाण दे रहे हैं ।

 

  त्रिवेणीजी श्रीरामचरितमानस जी के अयोध्याकाण्ड में भरत जी से कहते हैं कि के हे तात भरत तुम सब बिधि साधू हो । अर्थात तुम पूर्णतया-सब प्रकार से साधू हो- ‘तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू । राम चरन अनुराग अगाधू’ ।। लेकिन यहाँ यह बड़ी ध्यान देने वाली बात है कि जब भरत जी भरद्वाजजी से मिले थे, संगम-त्रिवेणी जी गए थे तो उस समय उनका वेश साधु का नहीं था-‘वेष न सो सखि सीय न संगा । आगे अनी चली चतुरंगा’ ।। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधू होने के लिए वेश गौण और साधुता ही प्रधान है ।

 

 गोस्वामी जी ने कहा भी है कि जामवंतजी और हनुमानजी को साधु का सम्मान मिला है जबकि उनका वेश साधु का नहीं था । क्योंकि जामवंत जी और हनुमानजी में साधुता थी- कियेहु कुवेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ।।

 

वहीं दूसरी ओर जो ठग हैं लेकिन वेश अच्छा बना लेते हैं तो कुछ दिन उनकी भी पूजा होती है । यह वेश के प्रभाव से होता है- ‘लखि सुवेष जग बंचक जेऊ । वेश प्रताप पूजिअहिं तेऊ’ ।। गोस्वामी जी कहते हैं कि भले और बुरे का भेद जरूर खुलता है । जैसे रावण, कालनेमि और राहु का भेद भी अंततः खुल गया था । रावण और कालनेमि ने साधु का वेश तो बना लिया लेकिन उनमें साधुता नहीं थी । रावण और कालनेमि का अंततः भेद खुल गया- ‘उघरहिं अंत न होइ निवाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू’ ।।

 

इतना ही नहीं पहले हनुमानजी ने कालनेमि का सम्मान किया क्योंकि उसने वेश साधु का बना रखा था । लेकिन जब हनुमान जी को पता चला कि इसका वेश तो साधु का है लेकिन यह साधु नहीं है तब क्या किया- ‘सिर लंगूर लपेटि पिछारा’

 

  इस प्रकार साधू होने के लिए वेश गौण और साधुता प्रधान है । और यदि भेद खुल जाय तो फिर किनारा कर लेना चाहिए । क्योंकि हनुमान जी ने भी यही किया था । वे समर्थ थे तो उन्होंने कालनेमि को दण्ड भी दिया । लेकिन हम लोगों को किनारा कर लेना चाहिए । इतनी शिक्षा तो लेनी ही चाहिए ।

 

 

।। जय हनुमान जी की ।।

 

Monday, July 24, 2023

सादर जल लै चरन पखारे

 

जब किसी को लोग श्रद्धा, विश्वास और सम्मान के साथ सुन रहे हों तो वक्ता की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अपने मन से अथवा सुनी-सुनाई बातें न कहकर तथ्य पूर्ण प्रमाणिक बातें ही बोले, बताए और कहे ।

 

 लेकिन कुछ लोग अप्रमाणिक बातें भी बताते, बोलते, कहते और सुनाते रहते हैं । जैसे मरने के बाद भी हम लोग खुब सत्संग करेंगे । हम भगवान के यहाँ भी आप लोगों को खुब कथा सुनायेंगे । सुनने वाले ताली बजाते हैं और खुश होते हैं हैं क्योंकि उन्हें भी नहीं पता होता है कि ग्रंथों के अनुसार भगवान के यहाँ कथा होती ही नहीं है ।


इसी तरह एक लोग सुना रहे थे कि इतिहास में अर्थात जबसे सृष्टि बनी तबसे केवल तीन लोगों को भगवान का चरण पखारने का सौभाग्य मिला है । एक व्रह्माजी को, दूसरे जनक जी को और तीसरे केवट जी को । लोग ताली बजा रहे थे ।

 

एक लोग कथा सुनकर आए और बताने लगे कि इतिहास में केवल तीन लोगों को ही भगवान का चरण पखारने का सौभाग्य मिला है । आज बहुत अच्छी कथा हुई है । मेरे गुरूजी ने यह मार्मिक बात बताई है ।

 

 मैंने कहा कि ऐसा नहीं है । कई लोगों को भगवान के चरण पखारने का सौभाग्य मिला है । ये बिचारे क्या करें गुरूजी ने कह रखा है कि गुरू जी की बात में कोई शंका नहीं करनी है । एक बार में ही बात मान लेनी है और किसी भी स्थिति में दोष नहीं देखना है ।

 

मैंने कहा कि श्रीरामचरितमानस जी के अरण्यकाण्ड को देखिए । शवरी जी को भी यह सौभाग्य मिला है-

 

सादर जल लै चरन पखारे । पुनि सुंदर आसन बैठारे ।।

 

 

।। जय श्रीराम ।।

 

 

Tuesday, July 4, 2023

साधक की सोचनीयावस्था

जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए आगे बढ़ता है तो कई अवस्थाएँ आती हैं । लेकिन इस कराल कलिकाल में किसी-किसी साधक के जीवन में कुछ विशेष अवस्थायें आ जाती हैं जिसे साधक की सोचनीयावस्था के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था का दायरा बहुत विस्तृत है । यहाँ पर कुछ स्थितियों का ही उल्लेख किया जा रहा है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस जी में ऐसी ही एक स्थिति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-


बैखानस सोइ सोचै जोगू । तप बिहाय जेहि भावै भोगू 

 

 अन्य अवस्थाएं थोड़ी कठिन हो सकती हैं और कठिनाई से प्राप्त हो सकती हैं । लेकिन सोचनीयावस्था में पहुँचने के लिए कोई विशेष कठिनाई नहीं होती है । बिना किसी विशेष स्थिति अथवा अवस्था में पहुँचे ही उस स्थिति का प्रदर्शन, दिखावा भी साधक की सोचनीयावस्था के अंतर्गत ही आता है ।

 

  जैसे भगवान की लीला में प्रवेश हुए बिना कहना, बताना कि अपना अथवा इनका लीला में प्रवेश हो चुका है । व्रह्म में लीन हुए बिना ही कहना कि मैं अथवा ये तो व्रह्म में लीन रहती हैं । स्त्री-पुरुष का भेद समाप्त हुए बिना ही कहना कि मैं अथवा अमुक स्त्री पुरुष के भेद से ऊपर उठ चुका है । आदि । इसीतरह माला छोड़ देना और कहना की माला की जरूरत नहीं है क्योंकि नाम की प्रतिष्ठा हो चुकी है इत्यादि ।

 

 किसी के जीवन में यह स्थिति अथवा अवस्था न आए तभी बेहतर है । साधक सोचनीयावस्था से बचकर साधना करता रहे इसी में उसकी भलाई होती है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

  

Friday, June 16, 2023

साधुता की प्रतिष्ठा और संतत्व की सिद्धि दुर्लभ होती है

 

कलियुग में बातें ज्यादा होती हैं । दिखावा ज्यादा होता है । व्रह्म में स्थित होने की बात होगी, लीला में प्रवेश की बात होगी, दर्शन आदि की बात होगी लेकिन भीतर खोखलापन होता है । जैसे केला का पेड़ बाहर से बहुत चिकना और हरा-भरा क्यों न दीखे अंदर सार तत्व नहीं होता है । यही स्थिति कलिकाल में हर क्षेत्र में होती है । और साधु-संत जगत भी इससे अछूता नहीं रह पाता ।

 

इस कराल कलिकाल में साधु-संत जैसे कपड़े पहन लेना और साधु-संत जैसी अच्छी-अच्छी बात कर लेना आसान होता है लेकिन वास्तव में साधु-संत होना कठिन होता है । साधुता की प्रतिष्ठिा हो जाना, संतत्व की सिद्धि हो जाना मुश्किल होता है । जब साधुता की प्रतिष्ठा हो जायेगी, संतत्व की सिद्धि हो जायेगी तब ग्रंथों में कहे हुए लक्षण अपने आप घटने लगेंगे ।

 

यदि संतत्व की सिद्धि नहीं हो पाई अथवा साधुता की प्रतिष्ठा नहीं हो पाई तो हानि अधिक होती है । क्योंकि जो पाप गृहस्थ से बनता है वही पाप यदि साधु-संत से बनता है तो गृहस्थ की अपेक्षा साधु-संत को अधिक पाप होता है । इसलिए साधु-संत बनकर नर्क जाना ज्यादा आसान हो सकता है ।

 

 इसलिए सावधानी बहुत जरूरी है । जिनमें संतत्व की सिद्धि हो जाती है उन्हीं के लिए कहा गया- ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’ । जिनमें साधुता की प्रतिष्ठा हो जाती है उन्हीं के लिए कहा गया है कि ‘जब द्रवहिं दीनदयालु राघव साधु संगति पाइए’ । आजकल लोग ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’ और ‘जब द्रवहिं दीनदयालु राघव साधु संगति पाइए’ आदि गाते और बताते अधिक हैं लेकिन साधुता की प्रतिष्ठा और संतत्व की सिद्धि पर प्रकाश नहीं डालते । इसलिए धर्म के वास्तविक-सूक्ष्म ज्ञान से रहित भोले-भाले लोगों को यही भ्रम रहता है कि-

 

रामदास इनसे जुड़े, दूर कहाँ कल्यान ।

आज नहीं तो कल सही, भेजिहैं राम विमान ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

 

 

 

 

Saturday, June 3, 2023

सनातन धर्म और प्रायश्चित: देवता, भगवान, गुरू, साधु-संत किसी को छूट नहीं है

 

सनातन धर्म के सनातन नियम तथा कर्म और फल का सिद्धांत बहुत प्रबल है । बहुत कठिन है । सनातन धर्म में किसी को छूट नहीं है । यहाँ तक देवता और भगवान को भी प्रायश्चित करना पड़ता है ।

 

ऐसे में किसी व्यक्ति को छूट कैसे मिल सकती है चाहे वह गुरू अथवा साधु-संत ही क्यों न हो ।

 

  पुराणों में कथा आती है कि देवराज इंद्र और भगवान शंकर को भी प्रायश्चित करना पड़ा था । इतना ही नहीं स्वयं भगवान विष्णु को भी यह दिखाने के लिए कि किसी को छूट नहीं है कई बार अपने द्वारा किए गए कार्यों के अनुरूप शाप को अंगीकार करना पड़ा था ।

 

  सनातन धर्म में कर्तव्याकर्तव्य पर बहुत जोर दिया गया है । किसके के लिए क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, उसके अनुरूप कार्य करना चाहिए । जो प्रमाद बस अथवा अभिमान बस कर्तव्य और अकर्तव्य के अनुसार कार्य नहीं करता वह दण्ड का भागी बन जाता है ।

 

  श्रीवाल्मीकि रामायण में एक श्लोक आता है जिसके अनुसार यदि गुरू भी कर्तव्याकर्तव्य के अनुसार कार्य न करे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसे भी दण्ड देना आवश्यक हो जाता है -

 

  गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।

  प्रतिपन्नस्य कार्यं  भवति शासनम्   ।।

 


इस प्रकार सनातन धर्म में किसी को भी छूट नहीं है और इसलिए सभी को कर्तव्याकर्तव्य के अनुसार कार्य करना आवश्यक होता है ।

 


।। जय श्रीराम ।।

 

Thursday, May 18, 2023

माँग और पूर्ति का सिद्धांत भगवान पर लागू नहीं होता है

 

भगवान परम स्वत्रंत हैं । भगवान के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता है । और कोई भी संसारिक नियम तो भगवान पर बिल्कुल लागू नहीं होते । जहाँ संसारिक नियमों की सीमा समाप्त होती है वहीं से भगवान की दिव्यतम सत्ता, लोक-लीला आदि का आरंभ होता है ।

 

 अर्थशास्त्र और वाणिज्य में माँग और पूर्ति का सिद्धांत चलता है । इसके अनुसार जिस चीज अथवा वस्तु की माँग अधिक होती है उसकी कीमत अधिक होती है । और मुश्किल से भी मिल सकती है । लेकिन जिस चीज अथवा वस्तु की माँग कम होती है वह बहुत सस्ती रहती है और आसानी से मिल जाती है ।

 

 इसी सिद्धांत को एकात लोग मूर्खता वश भगवान पर भी आरोपित करते हैं और सोचते, कहते और प्रचारित करते हैं कि कलियुग में भगवान की माँग कम है अर्थात भगवान को चाहने वाले कलियुग में कम हैं । इसलिए कलियुग में भगवान बहुत सस्ते हैं और आसानी से मिल सकते हैं ।

 

  लेकिन यह समझना बहुत जरूरी है कि भगवान बाजार में बिकने वाली न तो कोई चीज अथवा वस्तु हैं और न ही भगवान पहले खरीदने से मिलते थे और न आज ही मिलते हैं । भगवान जैसे पहले थे वैसे आज भी हैं वे सदा एक रस रहते हैं वे समय के साथ बदलते नहीं हैं । इसलिए भगवान की तुलना बाजार में बिकने वाली किसी चीज अथवा वस्तु से करना महा मूर्खता ही है ।

 

  इस प्रकार भगवान पर माँग और पूर्ति का सिद्धांत आरोपित करना ठीक नहीं है । भगवान किसी विशेष प्रयत्न और प्रयास के बस में भी नहीं हैं । भगवान यह करने पर अथवा ऐसा करने पर ही मिलते हैं इन सब बातों का भी कोई विशेष अध्यात्मिक महत्व नहीं है । भगवान केवल और केवल अपनी कृपा से मिलते हैं । भगवान जब कभी किसी से मिलते हैं तो अपनी ओर से ही मिलते हैं अपनी कृपा के बल से मिलते हैं । अतः माँग और पूर्ति सिद्धांत को भगवान पर आरोपित करके न तो स्वयं गुमराह होना चाहिए और न ही दूसरों को गुमराह करना चाहिए ।

 


।। जय श्रीराम ।।


Wednesday, May 10, 2023

पति पत्नी के बीच पाप-पुण्य का विभाजन कब नहीं होता ?


 सनातन धर्म में ऐसा कहा गया है कि पति का आधा पुण्य पत्नी को मिलता है । पति कोई भी पुण्य कार्य करे तो पत्नी को पुण्य का आधा भाग मिल जायेगा ।

 

  इसी तरह पत्नी का किया हुआ आधा पाप पति को मिलता है । अर्थात पत्नी कोई पाप कर्म करे तो उसका आधा पति को मिल जाता है ।

 

लेकिन यह सब तब होता है जब पति-पत्नी एक दूसरे के अनुकूल हों । प्रतिकूल होने पर ऐसा नहीं होता है । प्रतिकूल होने पर केवल अपने किए के अनुसार पाप-पुण्य मिलेगा । आधा का चक्कर नहीं रहेगा ।

 

जैसे पत्नी को लगता है कि ऐसा करने में उसका हित है, कल्याण है और पति राजी नहीं है और पत्नी पति की मर्जी के बिना वैसा करती है तो पति आधे पाप से बच जाएगा । इसी तरह पत्नी आधे पुण्य से वंचित हो जायेगी ।

 

 इस प्रकार आधा का चक्कर अनुकूलता में ही है । प्रतिकूलता में आधा का चक्कर नहीं है । 

 


।। जय श्रीराम ।।

 

Sunday, May 7, 2023

भगवद दर्शन और भगवद प्राप्ति के बाद क्या व्यक्ति डिब्बे ढोता है ?

 

आजकल कई लोग भगवद दर्शन, भगवद प्राप्ति, भगवद लीला में प्रवेश आदि को बहुत हल्का बना दिए हैं । लेकिन भगवद बोध-प्राप्ति इतना सरल नहीं है । खेल नहीं है । भगवद दर्शन, भगवद प्राप्ति और भगवद लीला में प्रवेश ऊँची बात है हल्की बात नहीं है ।

 

 एक प्रश्न है कि यदि किसी को भगवद दर्शन हो जाता है । भगवद प्राप्ति हो जाती है तो क्या व्यक्ति के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता है ? क्या भगवद दर्शन और भगवद प्राप्ति के बाद व्यक्ति डिब्बे ढोता है ?

 

  एक संत हैं । जिन्हें लोग कहते हैं कि इन्हें भगवान के दर्शन हो चुके हैं । इनको भगवद प्राप्ति हो चुकी है । इन्हें कुछ पाना शेष नहीं है । अब ये लोगों का कल्याण कर रहे हैं । आदि ।

 

   इनके सत्संग में ज्यादा महिलाएं ही होती हैं और इंही से ये अपनी समस्या भी बताते रहते हैं । जैसे यहाँ से जाने के बाद कभी-कभी सूखी रोटी भी खाकर रहना  पड़ता हैं । और कभी-कभी भूंखे भी रहना पड़ता है । आदि । ऐसा सुनकर महिलाएं द्रवित हो जाती हैं । भावना प्रधान तो होती ही हैं । इसलिए ड्राई फ्रूट के डिब्बे,  मूँगफली, भुना चुरा, लाई, अचार, सिरका, भरा मिर्चा आदि खाने-पीने की चीजें डिब्बे भर-भरकर देती हैं ।

  महाराज जी कभी एक महीने में, कभी पन्द्रह दिन में ही और कभी दो महीने में फिर वापस आ जाते हैं और साथ में सभी खाली डिब्बे वापस लाते हैं, खाली बैग-झोले भी लाते हैं ।

 

 फिर डिब्बे वापस करते हैं और बोलते हैं कि यह डिब्बा इन माता जी का है, यह उन माता जी का है, यह उनका है... आदि । यह झोला इनका है, यह उनका है आदि । यह सिलसिला जारी रहता है ।

 

 अब साधक और संत सुजान स्वयं निर्णय करें कि क्या भगवद दर्शन के बाद, भगवद प्राप्ति के बाद व्यक्ति डिब्बे ढोता है ? जिसको कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता क्या वह डिब्बे ढोता है ? क्या वह धाम छोड़कर एक स्थान विशेष, जो कोई तीर्थ भी नहीं है, के लोगों से ही चिपका रहता है ?

 


दर्शन प्राप्ती हो चुकी, लगि लगि कहते कान ।

रामदास करने लगे, औरन का कल्यान ।।

  

बड़े भाग ते मिलत हैं, ऐसे परम सुजान ।

रामदास पहिचानिये, कहते बड़े महान ।।

 

 साधु नहीं इनके सरिस, फँसे सभी मजधार ।

 रामदास ये कहत हैं, वे अइहैं संसार ।।

 

रामदास इनसे जुड़े, दूर कहाँ कल्यान ।

आज नहीं तो कल सही, भेजिहैं राम विमान ।।


रामदास कलिकाल में, अधिक कहाँ सब थोर ।

डिब्बा झोला ढो रहे, यह इनका यह तोर ।।

 


।। जय श्रीराम ।। 

 

Sunday, April 16, 2023

अध्यात्मिक खेल- क्या बेहोश होना और लीला में प्रवेश होना एक ही है ?

 

घोर कलियुग है । आगे घोरतम कलियुग आएगा । आजकल भगवद प्राप्ति, भगवद दर्शन और लीला में प्रवेश आदि को खेल समझा जा रहा है ।

 

किसी को सपने में भगवान के दर्शन अथवा कुछ अनुभव हो जाए तो कहने लगते हैं कि इनको भगवान के दर्शन होते हैं । यह स्पष्ट नहीं बोलते कि सपने में भगवान के दर्शन हुए हैं अथवा होते हैं । सामने सुनने वाला मान भी लेता है कि जब गुरू जी ही इतने पहुँचे हुए हैं तो उनका संग करने वाले को भगवान का दर्शन हो तो इसमें क्या बड़ी बात है ?

 

एक लोग बता रहे थे कि एक महिला को ‘लो ब्लड प्रेशर’ की समस्या रहती है । जिससे वह कई बार बेहोश भी हो जाती है । ज्यादा सोचने पर, टेंशन करने पर भी बेहोश हो जाती है । उसके पति ने उसके गुरू जी से बताया कि इनका स्वास्थ्य सही नहीं रहता है ।  ‘बीपी-ब्लड प्रेशर’ भी लो  रहता है । कभी-कभी बेहोश भी हो जाती हैं । अभी कल पूजा घर में ही बेहोश हो गयीं थी । तब गुरू जी ने कहा कि तुम्हें क्या पता कि ये बेहोश हुईं थी कि इनका लीला में प्रवेश हो गया था ?

 

  इस कलियुग में बेहोश होना भी लीला में प्रवेश होना हो गया है । भगवद प्राप्ति, भवद दर्शन और लीला में प्रवेश को लोगों ने कितना हल्का बना दिया है । ऐसे हल्के लोगों से सावधान रहने की जरूरत है-


 रामदास कलिकाल में, खेल खेल में खेल ।

दर्शन प्राप्ती खेल भै, खेल भै लीला मेल ।। 

 

 

।। जय श्रीराम ।।

Thursday, April 13, 2023

कलियुग में व्रह्म ज्ञानी बहुत बढ़ जाते हैं

 

सनातन धर्म में चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग । और युगों  की अपेक्षा व्रह्म ज्ञानी कलियुग में बहुत अधिक बढ़ जाते हैं । अर्थात अन्य युगों में इतने व्रह्म ज्ञानी नहीं होते हैं जितने कलियुग में होते हैं ।

 

   कलियुग में अधिकांश लोग अपने को कई दूसरों को प्रचारित करने लगते हैं कि ये व्रह्म में स्थित हैं । भले ही व्रह्म में स्थित होने का मतलब न जानते हों ।

 

  कई लोग जो कुछ सत्संग कर लेते हैं, कुछ नाम जप कर लेते हैं वे लोग अपने  को व्रह्म ज्ञानी समझने लगते हैं । व्रह्म ज्ञान से नीचे की बात ये लोग करते ही नहीं हैं । इस प्रकार व्रह्म ज्ञानियों की संख्या कलियुग में बहुत बढ़ जाती है ।

 

   प्रसिद्ध संत और श्रीराम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरित मानस जी में कहते हैं कि कलियुग में स्त्री और पुरुष व्रह्म ज्ञान के अलावा दूसरी बात नहीं करते । बाहर से तो ब्रह्म ज्ञान की बात करते हैं और अंदर से खोखले होते हैं-

 

ब्रह्म ज्ञान बिनु नारि-नर कहहिं न दूसर बात । 

कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात । 

                                    - श्रीरामचरितमानस ।

 

 

।। जय श्रीराम ।।

 

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