जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए आगे बढ़ता है तो कई अवस्थाएँ आती हैं । लेकिन इस कराल कलिकाल में किसी-किसी साधक के जीवन में कुछ विशेष अवस्थायें आ जाती हैं जिसे साधक की सोचनीयावस्था के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था का दायरा बहुत विस्तृत है । यहाँ पर कुछ स्थितियों का ही उल्लेख किया जा रहा है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस जी में ऐसी ही एक स्थिति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं-
बैखानस सोइ सोचै जोगू । तप बिहाय जेहि भावै भोगू ।।
अन्य अवस्थाएं थोड़ी
कठिन हो सकती हैं और कठिनाई से प्राप्त हो सकती हैं । लेकिन सोचनीयावस्था में पहुँचने
के लिए कोई विशेष कठिनाई नहीं होती है । बिना किसी विशेष स्थिति अथवा अवस्था में
पहुँचे ही उस स्थिति का प्रदर्शन, दिखावा भी साधक की सोचनीयावस्था के अंतर्गत ही आता
है ।
जैसे भगवान की लीला
में प्रवेश हुए बिना कहना, बताना कि अपना अथवा इनका लीला में प्रवेश हो चुका है ।
व्रह्म में लीन हुए बिना ही कहना कि मैं अथवा ये तो व्रह्म में लीन रहती हैं ।
स्त्री-पुरुष का भेद समाप्त हुए बिना ही कहना कि मैं अथवा अमुक स्त्री पुरुष के
भेद से ऊपर उठ चुका है । आदि । इसीतरह माला छोड़ देना और कहना की माला की जरूरत
नहीं है क्योंकि नाम की प्रतिष्ठा हो चुकी है इत्यादि ।
किसी के जीवन में यह
स्थिति अथवा अवस्था न आए तभी बेहतर है । साधक सोचनीयावस्था से बचकर साधना करता रहे
इसी में उसकी भलाई होती है ।
।। जय श्रीराम ।।
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