कलियुग में बातें ज्यादा होती हैं । दिखावा ज्यादा होता है ।
व्रह्म में स्थित होने की बात होगी, लीला में प्रवेश की बात होगी, दर्शन आदि की
बात होगी लेकिन भीतर खोखलापन होता है । जैसे केला का पेड़ बाहर से बहुत चिकना और
हरा-भरा क्यों न दीखे अंदर सार तत्व नहीं होता है । यही स्थिति कलिकाल में हर
क्षेत्र में होती है । और साधु-संत जगत भी इससे अछूता नहीं रह पाता ।
इस कराल कलिकाल में साधु-संत जैसे कपड़े पहन लेना और साधु-संत
जैसी अच्छी-अच्छी बात कर लेना आसान होता है लेकिन वास्तव में साधु-संत होना कठिन
होता है । साधुता की प्रतिष्ठिा हो जाना, संतत्व की सिद्धि हो जाना मुश्किल होता
है । जब साधुता की प्रतिष्ठा हो जायेगी, संतत्व की सिद्धि हो जायेगी तब ग्रंथों
में कहे हुए लक्षण अपने आप घटने लगेंगे ।
यदि संतत्व की सिद्धि नहीं हो पाई अथवा साधुता की प्रतिष्ठा
नहीं हो पाई तो हानि अधिक होती है । क्योंकि जो पाप गृहस्थ से बनता है वही पाप यदि
साधु-संत से बनता है तो गृहस्थ की अपेक्षा साधु-संत को अधिक पाप होता है । इसलिए
साधु-संत बनकर नर्क जाना ज्यादा आसान हो सकता है ।
इसलिए सावधानी बहुत
जरूरी है । जिनमें संतत्व की सिद्धि हो जाती है उन्हीं के लिए कहा गया- ‘प्रथम
भगति संतन कर संगा’ । जिनमें साधुता की प्रतिष्ठा हो जाती है उन्हीं के लिए
कहा गया है कि ‘जब द्रवहिं दीनदयालु राघव साधु संगति पाइए’ । आजकल लोग ‘प्रथम
भगति संतन कर संगा’ और ‘जब द्रवहिं दीनदयालु राघव साधु संगति पाइए’ आदि
गाते और बताते अधिक हैं लेकिन साधुता की प्रतिष्ठा और संतत्व की सिद्धि पर प्रकाश
नहीं डालते । इसलिए धर्म के वास्तविक-सूक्ष्म ज्ञान से रहित भोले-भाले लोगों को
यही भ्रम रहता है कि-
रामदास इनसे जुड़े, दूर कहाँ कल्यान ।
आज नहीं तो कल सही, भेजिहैं राम विमान
।।
।। जय श्रीराम ।।
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