राघव मोरे दीन हितैषी ।
जेहि दीनन कोई बात न पूछै जग करै ऐसी तैसी ।। १ ।।
तेहि दीनन गहि बाँह निवाजत कुशल निभै कहौ कैसी ।
देत-दिवावत मान सुधारत बिगरी हो चाहे जैसी ।। २ ।।
पलक नयन जिमि दास को राखत मेटत सकल अनैसी ।
दीन संतोष निज धाम बसावत रीति कहीं नहीं ऐसी ।। ३ ।।
।। दीन हितैषी भगवान राम की जय ।।