जग बिछुरै एक राम न बिछुरैं ।
आदि मध्य अरु अंत के साथी राम चरन नहिं पकरै ।।१।।
कोउ पहले कोउ बीच में छोड़ै अंत संग नहिं ठहरै ।
जग में जाइ जगत हठि पकरै लोभ मोह रजु जकरै ।।२।।
जो पकरै सो हाथ से जाए मूठी जल जिमि निसरै ।
भवचक्की सुख दुख दो पाटे पिस-पिस चौरासी टहरै ।
कृपासिंधु रघुनाथ कृपा बिनु केहि बिधि कोउ पुनि निकरै ।
सीताराम चरन सुखदायक अब जनि रे मन बिसरै ।
सुमिर-सुमिर रघुपति गुन करनी कोउ नहिं भवनिधि उतरै ।
दीन संतोष राम कृपा ते दीन जनन की सुधरै ।।५।।
।। जय श्रीसीताराम ।।
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