एक संत बता रहे थे कि एक महात्मा थे । एक बार वे एक
क्षेत्र में भगवान के मंदिर में दर्शन हेतु गए । उस क्षेत्र के लोग अपने प्रेम और
भाव के अनुसार संतजी को अपने घर बुलाने लगे ।
जब संतजी लोगों के
यहाँ जाते तो सबके यहाँ उनको एक विशेष भोजन जरूर मिलता । जिसे यहाँ हलवा कहा जा
रहा है ।
संतजी ने एक व्यक्ति से पूछा कि क्या यहाँ के लोग हलवा अधिक
खाते हैं । हम जहाँ जाते हैं वहाँ हलवा जरूर मिलता है । वह व्यक्ति बोला नहीं
महाराज जी ऐसा नहीं है । लेकिन यहाँ के लोगों के मन में यह बात बैठी हुई है कि
आपको हलवा बहुत प्रिय है । इसलिए आपकी रूचि को देखते हुए ये लोग आप के लिए हलवा
जरूर बना देते हैं ।
यह सुनते ही संत जी रोने लगे । और बहुत रोये । किसी के कुछ समझ
में नहीं आ रहा था कि अभी तो बात कर रहे थे अचानक रोने क्यों लगे ? संत जी रोये जा रहे थे ।
लोग पूछने लगे कि
महाराज जी क्या हो गया ? कुछ तो बताइए क्या हुआ । तब संतजी ने कहा बच्चा हमने घर
क्यों छोड़ा- भगवान के लिए । साधू क्यों बने भगवान के लिए । भगवान प्रिय हो जाएँ
इसके लिए साधू बने थे, घर छोड़ा था । हलवा
प्रिय हो जाय इसके लिए तो घर नहीं छोड़ा था । रूचि होनी चाहिए थी केवल और केवल भगवान
में और रूचि हो गाई हलवे में ।
साधू की प्रत्येक करनी से, रहनी से यही संदेश जाना चाहिए कि केवल और केवल इन्हें भगवान प्रिय हैं । और यहाँ तो उल्टा संदेश जा रहा है कि महाराज जी को हलवा प्रिय है । ऐसी साधुता पर धिक्कार है । इसलिए रोना आ रहा है ।
जब तक संसार के किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा पदार्थ में रूचि है तब तक सच्ची साधुता कहाँ है ? और भगवान में सच्चा प्रेम कहाँ है ?
जब तक रूचि संसार में हरि से प्रीति न होय ।
व्यक्ति पदारथ वस्तु रुचि तजता बिरला कोय ।।
।। जय श्रीराम ।।
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