भगवान श्रीराम के समान न कोई था, न है और न होगा । आनंद रामायण में कहा गया है कि ‘रामेण सदृशो देवो न भूतो न भविष्यति’ अर्थात रामजी के जैसा कोई देवता अथवा भगवान न तो कोई पहले था और न कोई भविष्य में ही होगा ।
राम जी के समान सरलता किसी में नहीं है । दीनबंधुता नहीं है ।
शील नहीं है । स्वभाव नहीं है । उदारता नहीं है-‘ऐसो को उदार जग माही’-श्रीविनयपत्रिका
। आदि ।
भगवान श्रीराम जैसी उदारता, शील और दीनबंधुता आदि भगवान ने
अपने अन्य रूपों में प्रगट नहीं किया । राम जी कोल, किरात, भील आदि जैसे दीनों को
केवल अपनाया ही नहीं बल्कि उनके बीच में जाकर रहे । उनसे मित्रता किया ।
रामजी ने गीध जैसे
आमिष भोगी पक्षी को भी अपना बना लिया । अपना लिया । वानरों और भालुओं को भी अपना
लिया । उनके साथ रहे और उनको अपने साथ रखा । और तो और उन्हें अपना भाई माना ।
मित्र माना ।
भगवान राम ही एक
मात्र ऐसे हैं जिन्होंने सही मायने में अपने को दीनबंधु सिद्ध किया । दीनों को
खोज-खोज कर मिले, उन्हें अपनाया, अपना बनाया, गले से लगाया ।
केवट, निषाद, कोल,
भील, गीध, शवरी, वानर और भालू को कब और किसने अपनाया था । अपना बनाया था । लेकिन
रामजी ने वानर और भालुओं को भी अपना मित्र बनाया ।
सुग्रीव को मित्र
बनाया, विभीषण को मित्र बनाया । जो रामजी का सुमिरण-भजन करते हैं रामजी सामान्यतया
उसे अपना मित्र बना लेते हैं । रामजी अपने सेवकों से भी मित्रवत व्यवहार करते हैं ।
परम सबलता और परम सरलता
दोनों एक साथ केवल और केवल रामजी में ही हैं । वन में साधु-संत प्रणाम करें उसके
पहले रामजी सबको प्रणाम कर लेते थे । अपने स्वरूप को छिपाते रहते थे कि कोई भगवान
न कह दे । जब निषाद की माता जी को देखा तो मित्र की माता हैं इसलिए रामजी ने उनको
भी दौड़कर प्रणाम कर लिया ।
बड़ा से बड़ा कार्य
करके भी उसका श्रेय दूसरों को देते हैं । वानर और भालुओं से कहा कि तुम्हारे बल से
मैंने रावण का वध किया है । जब वानरों ने कहा कि भगवन ! कहीं मच्छर गरुण जी की
सहायता कर सकते हैं क्या ? हम सब तो आपके सामने मच्छर के समान हैं । हम सब आपकी क्या
सहायता कर सकते थे ? लेकिन आपका स्वभाव है अपने भक्तों को श्रेय देने का इसलिए आप
ऐसा कह रहे है ।
जब वानर और भालू ऐसा
नहीं मान पाए कि रामजी ने हम लोगों के बल से रावण का वध किया है । तब जब राम जी
गुरू वशिष्ठ जी से मिले तो बोले कि ये हमारे कुलपूज्य गुरू वशिष्ठ जी हैं इनकी
कृपा के बल पर हमने रावण इत्यादि राक्षसों का वध किया है-
गुर वशिष्ठ कुलपूज्य हमारे । इनकी
कृपा दनुज हम मारे ।।
कोई कितना भी पापी, दुर्जन अथवा मुझसा दोषकोश ही क्यों न हो
उसके ऐसा कहते ही कि हे रामजी मैं आपकी शरण में आया हूँ । शरण शब्द सुनकर ही रामजी रीझ
जाते हैं । उससे मुख नहीं फेरते । रामजी उसके सम्मुख हो जाते है –
शरन शबद सुनि प्रभु जी रीझत फेरत
नाहीं वदन ।।
रामजी अपने भक्तों से शरणागतों से बहुत प्रेम करते हैं । जब एक
बार विप्रों ने विभीषण जी को भूल वस ठोकर लग जाने से एक वृद्ध की मृत्यु हो जाने
से, वन्दी बना लिया और उन्हें प्राण दण्ड देना चाहा तब रामजी वहाँ स्वयं गए और
बोले कि सेवक का किया हुआ अपराध स्वामी का किया हुआ अपराध मानकर मैं विभीषण का
दण्ड स्वयं लेने के लिए प्रस्तुत हूँ लेकिन विभीषण को छोड़ दीजिए क्योंकि वे अवध्य
हैं । उन्हें मैंने एक कल्प तक राज्य करने का आशीर्वाद दिया है । इस प्रकार रामजी
ने विभीषण के प्राणों की रक्षा किया ।
रामजी के बारे में जितना कहा जाय, लिखा जाय उतना कम ही है । धन्य हैं रामजी जिनके लिए कहा गया है कि- ‘रामेण सदृशो देवो न भूतो न भविष्यति’ । सच है-
बानर भालू असुर को, सखा बनावै कौन ।
दीनबंधु रघुपति सरिस, हुआ न है नहिं होन ।।
सरल सबल करुणाअयन, जन मन राखत जोय ।
तीन काल तिहुँ लोक में, राम सरिस नहिं कोय ।।
।। जय श्रीराम ।।
No comments:
Post a Comment
इस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी दें